Thursday, October 4, 2012

Satsang Prayers Propagation Of Santmat And His Disciples

 
Santmat
Baba Devi Sahib - Sadguru of Maharshi Mehi
सन्तमत --- संतों की चली आ रही अविच्छिन परम्परा, ना जाने कब से चली आ रही है, और ना जाने कब तक चलती रहेगी | सन्तमत -- एक दिव्य प्रकाश-पुँज जो परमात्मा और उन तक पहुँचने के मार्ग को भी प्रकाशित करती है | महर्षि मेँहीँ के शब्दों में ---
"सन्तमत किसी का निजी मत नहीं है |" सन्तमत के गूढ् एवं महती ज्ञान का आविष्कारक कौन है, किसी को पता नही | इस ज्ञान का तो केवल प्रवाह ही है जो भिन्न भिन्न काल तथा देशों में भिन्न भिन्न सन्तों के अवतरित होने और उनके द्वारा किये गये अथक प्रचार से सन्तमत की ज्ञान-गंगा अब तक प्रवाहित होती आ रही है |

सन्तमत की इसी कडी में व्यास- वाल्मीकि, शुकदेव-नारद, याज्ञवल्क्य-जनक, शंकर-रामानुज, चैतन्य, नानक-कबीर, सूरदास-तुलसीदास, ज्ञानदेव-तुकाराम, तोतपुरी-रामक्रिष्ण परमहंस, शबरी-मीरा, सहजोबाई, समर्थ रामदास, ईसा मोहम्मद, शाह फकीर, गुरु तेग बहादुर, राधास्वामी, मलूक, दरिया साहब- चरणदास, तुलसी साहब ना जाने कितने जुडते चले गये और वर्तमान में बाबा देवी साहब, सतगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने सन्तमत में एक सशक्त, ओजपूर्ण और सुद्रिढ प्रवाह ही भर दिया । एक ऐसा प्रवाह जिसमें डुबकी लगा कर कोई भी मनुष्य बिना किसीभेद-भाव के अपने इहलोक एवं परलोक को कल्याणमय बना सकता है और सम्पूर्ण विश्व को एक चिरकालीन शांति, सुव्यवस्था और समुचित विकास प्रदान कर सकता है । महर्षि मेँहीँ ने सन्तों की स्तुति में गाया है --
सतगुरु देवी अरु जे भये हैं ,
होंगे सब चरणन शिर धारी ।
भजत हैं 'मेँहीँ' धन्य धन्य कही,
गही सन्त पद आशा सारी ।। 

अर्थात् सद्गुरु देवी और पहले के जितने भी सन्त हुए हैं, और वर्त्तमान मे जितने भी सन्त हैं और भविष्य में जितने भी सन्त होंगे, सबके चरणों में मेँहीँ अपना शिर नवाकर प्रणाम करते हैं ।
स्पष्ट है कि सन्तमत कि कडी मे और भी सन्त जुडेंगे जो द्रिष्टि योग एवं सुरत-सार-शब्द योग (नादानुसंधान योग) का अभ्यास करके 'नि:शब्दम् परमं पदं' को प्राप्त कर लेंगे । महर्षि मेँहीँ ने कहा है कि जिस मत में द्रिष्टि योग और सुरत-सार-शब्द योग का अभ्यास नही है, वह मत सन्तमत कहलाने के योग्य नहीं है । गुरु महाराज ने सदाचार और गुरु-सेवा को अध्यात्म-उन्नति के लिये परमावश्यक बतलाया है । साथ ही ये भी बतलाया है कि साधक को स्वावलम्बी होना चाहिये। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिये।

"जीवन बिताओ स्वावलम्बी भरम भाँरे फोरिकर ।
सन्तों की आज्ञा हैं ये 'मेँहीँ' माथ धर चल छोरिकर ।।"
saint Sadguru maharshi Mehi maharshi mehi sadguru maharshi mehi
मंगल मूरति करुणावतार सदगुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

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